कुरुक्षेत्र की धर्मक्षेत्र में परिणत भूमि पर जहां युद्ध की दुंदुभि बज उठी थी, वहीं से उभरा ज्ञान का अमृतमय पात्र – श्रीमद्भगवद्गीता। एक युद्धभूमि पर दो मित्रों के संवाद से शुरू हुआ यह ग्रंथ जीवन-दर्शन का ऐसा विराट स्वरूप लेकर सामने आया कि सदियों से मनुष्य के मन-मस्तिष्क को प्रकाशित करता रहा है। गीता केवल ग्रंथ नहीं, वो संपूर्ण जीवन का मार्गदर्शक है, जिसमें कर्म, योग, आत्मा, ब्रह्म, ज्ञान और भक्ति के सूत्र इतने सहज रूप में पिरोए गए हैं कि हर परिस्थिति में एक नया अर्थ, एक नया बोध खोल देते हैं
कर्म का निष्काम भाव: फल की चिंता छोड़ें, कर्तव्य निभाएं
अर्जुन और श्रीकृष्ण का संवाद युद्ध की पृष्ठभूमि पर चलता है, परंतु इसमें निहित सार्वभौमिक सत्य युद्धक्षेत्र की सीमाओं को तोड़कर जीवन के हर पहलू को स्पर्श करता है। गीता का पहला संदेश है – कर्म का निष्काम भाव से पालन। अपने कर्तव्य को बिना फल की आशा के करना ही वास्तविक धर्म है। गीता में स्पष्ट कहा गया है – “कर्मण्येवाधिकारस्ते न फलभिस्व कदाचन।” अर्थात कर्म करने का ही तुम्हारा अधिकार है, उसके फलों में कदापि नहीं। यह कर्मयोग का मूलमंत्र है जो हमें कर्म की प्रक्रिया में लीन होने का और फल की चिंता छोड़कर कर्तव्य-पालन पर ध्यान केंद्रित करने का उपदेश देता है।
आत्म-साक्षात्कार: शरीर नहीं, आत्मा हैं हम – मोक्ष का द्वार खोलने की कुंजी
योग की साधना जीवन का संतुलन बनाए रखने में सहायक है। कर्मयोग के साथ गीता ज्ञानयोग और भक्तियोग का भी मार्ग प्रशस्त करती है। ज्ञानयोग हमें भौतिक संसार की माया से ऊपर उठकर आत्म-साक्षात्कार का लक्ष्य प्रदान करता है। बुद्धि को निर्मल बनाकर और आत्मतत्व के ज्ञान तक पहुंचकर ही हम सच्चे सुख की प्राप्ति कर सकते हैं। वहीं भक्तियोग भगवान के प्रति अनन्य प्रेम और समर्पण का मार्ग दिखाता है। भगवान में लीन होकर ही हम मन की अशांति से मुक्त होकर मोक्ष का द्वार खोल सकते हैं।
गीता हमें सांसारिक रिश्तों को भी निभाने का कौशल सिखाती है। माता-पिता, गुरु, परिवार, समाज के प्रति अपने कर्तव्य और उनके प्रति सम्मानपूर्ण व्यवहार पर प्रकाश डालती है। साथ ही, द्वंद्वों और दुविधाओं से ग्रस्त मन को स्थिर करने के लिए ध्यान और योग का मार्ग प्रशस्त करती है। क्रोध, लोभ, मोह जैसे शत्रुओं पर विजय पाने के लिए गीता में दिए गए उपदेश आज भी प्रासंगिक हैं।
इस समस्त ज्ञान का सार है आत्मज्ञान। स्वयं को पहचानना ही मोक्ष का मार्ग है। गीता यही ज्ञान देती है कि हम शरीर नहीं, आत्मा हैं। यह आत्मा अमर, नित्य और चिरप्रकाश है। शरीर का नाश होता है, लेकिन आत्मा का क्षय नहीं होता। इस आत्मज्ञान की प्राप्ति ही जीवन का परम लक्ष्य है।
श्रीमद्भगवद्गीता न तो कोई धार्मिक ग्रंथ मात्र है, न ही कोई दार्शनिक ग्रंथ मात्र। यह ज्ञान का ऐसा महासागर है जो जीवन के हर सरोवर को अपने में समेट लेता है। यह धर्म, दर्शन, ज्ञान, योग और भक्ति का समन्वय है। इसकी गहराई में जितना उतरते हैं, उतने ही अनमोल रत्न मिलते हैं। कर्म का महत्त्व, कर्म की निष्कामता, योग की साधना, भक्ति का मार्ग, ज्ञान का प्रकाश, सब कुछ इतने सरल और स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया गया है कि हर व्यक्ति इसकी गूढ़तम ज्ञान तक पहुंच सकता है।
महात्माओं का मार्गदर्शक: गांधी से विवेकानंद तक, गीता की अमर शिक्षाएं
यही कारण है कि श्रीमद्भगवद्गीता सदियों से मानव जीवन को दिशा देती आ रही है। महात्मा गांधी से लेकर स्वामी विवेकानंद तक, अनगिनत महान विभूतियों ने गीता को अपना मार्गदर्शक माना है। इसकी शिक्षाएं विभिन्न संस्कृतियों, भाषाओं और परिस्थितियों में प्रासंगिक बनी हुई हैं। गीता न केवल व्यक्तिगत स्तर पर आत्म-विकास, संतोष और शांति का मार्ग प्रशस्त करती है, बल्कि समाज सुधार और विश्व कल्याण का संदेश भी देती है।
गीता में दिए गए अहिंसा, अपरिग्रह, सत्याग्रह जैसे सिद्धांत समाज में सद्भावना और न्यायपूर्ण व्यवस्था की स्थापना में सहायक हो सकते हैं। गीता का संदेश है कि हर प्राणी में परमात्मा का अंश निवास करता है। इसलिए सभी प्राणियों के प्रति प्रेम और सम्मान का व्यवहार ही वास्तविक धर्म है। इस दिव्य दृष्टिकोण को अपनाकर ही हम एक ऐसा समाज निर्माण कर सकते हैं जहां शांति, प्रेम और समृद्धि का वास हो।
हर व्यक्ति के लिए संदेश: सरल शब्दों में जीवन का गहन ज्ञान
श्रीमद्भगवद्गीता जीवन का एक पथप्रदर्शक है। इसका अध्ययन हमें कर्म करना, योग का अभ्यास करना, ज्ञान प्राप्त करना और भगवान में भक्ति करना सिखाता है। इन प्रक्रियाओं के माध्यम से हम आत्मज्ञान प्राप्त कर सकते हैं और मुक्ति का द्वार खोल सकते हैं। गीता का मार्ग कठिन नहीं, सरल है। बस जरूरत है एकाग्रचित्त होकर इसके उपदेशों को आत्मसात करने की, स्वयं को पहचानने की और जीवन को सार्थक बनाने की।
यहाँ शब्द सीमा के कारण विराम लेते हैं, परंतु श्रीमद्भगवद्गीता का सार यही है – कर्म करो, फल की चिंता छोड़ो, आत्मसाक्षात्कार करो और मोक्ष प्राप्त करो। यह अमृतमय ग्रंथ आपका ही नहीं, मानवता का मार्गदर्शक है। इसे पढ़िए, समझिए, आत्मसात कीजिए और एक सार्थक जीवन की ओर अग्रसर होइए।
सबसे पहले भगवद गीता किसने लिखी?और किसके द्वार गीता लिख गई?
सबसे पहले गीता ऋषि वेद व्यास ने लिखी और गीता भगवान श्री गणेश जी के द्वारा लिखी गई है.